भारत के विधि मंत्रालय द्वारा अधिसूचित द्वितीय राष्ट्रीय न्यायिक वेतन आयोग को भारत में कितनी निचली अदालतों में न्यायाधीशों की आवश्यकता है, का उत्तर देने के लिए कहा गया है।

उच्च न्यायतंत्रा तथा कार्यकारी अधिकारी के बीच इस बात को लेकर विवाद है कि वास्तव में कुल कितने अधीनस्थ न्यायाधीशों की आवश्यकता है। भारत में वर्तमान में अधीनस्थ न्यायतंत्रा में न्यायिक अधिकारियों के 22,000 से कम पदों को मंजूरी दी गई है, जिसमें से 5,000 पद रिक्त हैं। भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ने एक कान्फ्रेंस में कहा था कि भारत में पुराने मामले लगभग 3.2 करोड़ हैं जिन्हें निपटाने के लिए 70,000 न्यायाधीशों की आवश्यकता है। न्यायाधीशों की कम संख्या को ही पुराने मुकदमों को न निपटाये जा सकने का कारण माना जा रहा है।

विधि मंत्राी ने सभी 24 उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों से निचली अदालतों के प्रशासन तथा वित्त को संभालने के लिए एक अलग ढांचे के निर्माण हेतु अपना दृष्टिकोण रखने को कहा है। अभी यह कार्य भी न्यायाधीशों द्वारा ही किये जाते हैं। इस कार्य के लिए मंत्रालय ने एक आयोग का गठन किया है, जिसका नेतृत्व सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस पी.वी. रेड्डी करेंगे। यह आयोग निचली न्यायपालिका में कार्य के माहौल की भी समीक्षा करेगा।

यह आयोग निचली अदालतों के न्यायाधीशों के वेतन तथा सुविधाओं हेतु एक स्थायी तंत्रा की भी सिफारिश करेगा जो कि समय-समय पर वेतन तथा अन्य सुविधाओं की समीक्षा करे।

पूर्व न्यायाधीश ठाकुर के कथन से यह निष्कर्ष निकाला गया कि उन्होंने यह बात विधि आयोग की 120वी रिपोर्ट, 1987 का उद्धरण देते हुए से कही, जिसमें कहा गया था कि अमेरिका की तरह भारत में भी हर 50,000 व्यक्तियों पर 50 न्यायाधीशों की आवश्यकता है।

विधि आयोग की 245वीं रिपोर्ट में कहा गया है कि, न्यायाधीशों की संख्या का निर्धारण मुकदमों के निपटान की दर से किया जाना चाहिए न कि न्यायाधीश जनसंख्या अनुपात से। 245वीं रिपोर्ट, जुलाई 2014 में जारी की गई थी। सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को आयोग बनाने का निर्देश दिया जो कि अधीनस्थ न्यायपालिका के न्यायिक अधिकारियों के वेतनमान, कार्य के माहौल, सुविधाओं आदि की समीक्षा करे।

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