नई दिल्ली में एक प्रयोगशाला में किए गए शोधकार्य के परिणामस्वरूप भारत के जैव-ईंधन के उत्पादन के प्रयत्नों को सहायता मिल सकती है। इंटरनेशनल सेंटर फॉर जेनेटिक इंजीनियरिंग एंड बायोटेक्नोलॉजी के शोधकर्मियों ने व्यवसायिक रूप से प्रयुक्त किए जाने वाले कवक के जीनोम में इस प्रकार का अंतर उत्पन्न किया जिससे यह उस एंजाइम के उत्पादन में वृद्धि करेगा जो कि सेल्युलोस को सरल फरमंटेबल शर्करा में बदल देता है। यह खोज महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे कृषि अपशिष्ट जैसे कि चावल तथा गेहूं के पुआल, जिनको जलाने के कारण उत्तर भारत में वायु प्रदूषण अपने शीर्ष पर पहुंच जाता है, का उपयोग किया जा सकेगा भारत प्रतिवर्ष 500 मिलियन टन कृषि अपशिष्ट का उत्पादन करता है।

वैज्ञानिकों ने कवक पेनिसिलियम फ्यूनिक्यूलोसम के एक कंट्रोल मैकेनिज्म को बाधित कर दिया। यह मैकेनिज्म इसकी मेटाबॉलिक क्रियाओं को नियंत्रित करता है। इस मैकेनिज्म जिसे कार्बन कैटाबॉलिक रिप्रेशन कहा जाता है, को बाधित करने से वैज्ञानिकों ने उस एंजाइम के उत्पादन मे बढ़ोत्तरी कर ली जोकि सेल्युलोस को शर्करा में परिवर्तित करती है और इस प्रकार से जैव-ईंधन के उत्पादन में भी वृद्धि प्राप्त की जा सकी।

यह जैव-ईंधन में प्रयुक्त एंजाइम का एक बेहतर विकल्प हो सकता है और सभी प्रकार के कृषि अपशिष्ट के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है। अब तक प्रयुक्त होने वाली तकनीक से सेल्यूलोस के सिर्फ 60-65 प्रतिशत को शर्करा में बदला जा सकता था, परन्तु नई प्रक्रिया का इस्तेमाल करते हुए 80-85 प्रतिशत सेल्युलोस को शर्करा में परिवर्तित किया जा सकेगा। इस कवक पर वर्ष 2009 से काम किया जा रहा था। इस कवक को इसलिए चुना गया क्योंकि ‘ट्राइकोडर्मा रीसाई’ कवक से पांच गुना अधिक सक्रिय एंजाइम का उत्पादन करता है।

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