सर्वोच्च न्यायालय समलैंगिकता पर 2013 के निर्णय की समीक्षा करेगा, जिसके अनुसार, दो समान लिंग के व्यस्कों के बीच शारीरिक संबंधों को अपराध माना गया है। यह वक्तव्य जनवरी 2018 में दी गई इस पुनर्समीक्षा के कथन ने भारत में पुराने वाद-विवाद को उजागर कर दिया है कि भारत में समलैंगिकता के लिए अब तक औपनिवेशिक युग के कानून अस्तित्व में हैं।
यह वक्तव्य अगस्त 2017 के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय-निजता एक मूलभूत अधिकार है, के बाद आया है। निजता के अधिकार में यौन अभिविन्यास भी एक आवश्यक गुण के तौर पर सम्मिलित होता है। तीन जजों की खंडपीठ ने, जिसमें चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड तथा ए.एम. खानविल्कर ने एल.जी.बी.टी. (लेस्बियन, गे, बायसेक्सुअल तथा ट्रांसजेंडर) समूह की अपील की प्रतिक्रिया में यह व्यक्तव्य दिया कि इस मुद्दे पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है जिसमें भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के अनुसार, समान लिंग के बीच शारीरिक संबंधों को अपराध माना गया है चाहे यह दो व्यस्कों के बीच सहमति से हो। न्यायालय ने कहा है कि इस नियम पर पुनर्विचार तथा धारा 377 की संवैधानिक वैधता का निर्णय एक बड़ी पीठ द्वारा किया जाएगा। अदालत ने इस मामले में केंद्र सरकार से जवाब मांगा है। उच्चतम न्यायालय के अनुसार, सामाजिक नैतिकता में समय के साथ भी बदलाव होता है। अपनी व्यक्तिगत पसंद के कारण समाज का कोई वर्ग डर में नहीं जी सकता है।
वर्ष 2013 में सर्वोच्च न्यायालय की एक डिवीजन बेंच द्वारा दिए गए वर्ष 2009 के निर्णय को रद्द कर दिया था, जिसमें दो व्यस्क समलैंगिक पुरुषों के बीच यौन संबंधों को अपराध नहीं माना गया था। एलजीबीटी कार्यकर्ताओं ने अदालत के इस निर्णय का स्वागत किया है तथा कहा है कि हम 21वीं सदी में जी रहे हैं तथा समाज को अब समझना होगा कि समय के साथ इन मामलों के लिए स्वीकार्यता बढ़नी चाहिए।