वित्त एवं उद्योग संबंधी निकाय

भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई)

भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया अधिनियम, 1934 के अंतर्गत 1 अप्रैल, 1935 को 5 करोड़ रुपए की अधिकृत पूंजी से हुई थी। यह 5 करोड़ रुपए की पूंजी 100 रुपए मूल्य के 5 लाख अंशों में विभाजित थी। प्रारम्भ में लगभग समस्त अंश पूंजी का स्वामित्व गैर-सरकारी अंशधारियों के पास था, किंतु अंशों को कुछ व्यक्तियों के हाथों में केंद्रित होने से रोकने के लिए सरकार ने 1 जनवरी, 1949 को रिजर्व बैंक का राष्ट्रीयकरण कर दिया।

संगठनात्मक ढांचाः

बैंक में सामान्य प्रबंध एवं निर्देशन का कार्य 20 सदस्यों के एक केंद्रीय निदेशक मण्डल द्वारा किया जाता है। इसमें एक गवर्नर, चार डिप्टी गवर्नर, एक वित्त मंत्रालय द्वारा नियुक्त सरकारी अधिकारी और भारत सरकार द्वारा नामजद 10 ऐसे निदेशक होते हैं जो देश के आर्थिक जीवन के विभिन्न पहलुओं का प्रतिनिधित्व करते हैं और 4 निदेशक स्थानीय बोर्डों का प्रतिनिधित्व करने के लिए केंद्र सरकार द्वारा नामजद किए जाते हैं।

केंद्रीय बोर्ड के अतिरिक्त 4 स्थानीय बोर्ड भी हैं जिनके मुख्य कार्यालय मुम्बई, कोलकाता, चेन्नई एवं नई दिल्ली में हैं। स्थानीय बोर्डों के 5 सदस्य होते हैं, जो केंद्र सरकार द्वारा 4 वर्ष की अवधि हेतु नियुक्त किए जाते हैं। स्थानीय बोर्ड केंद्रीय संचालक मण्डल के आदेशानुसार कार्य करते हैं तथा समय-समय पर केंद्रीय संचालक मण्डल को महत्वपूर्ण विषयों पर परामर्श देते हैं। रिजर्व बैंक का मुख्यालय मुम्बई में है।

भारतीय रिजर्व बैंक के कृत्य एवं दायित्वः

* मौद्रिक नीति का निर्माण, कार्यान्वयन एवं निगरानी करना।

* नोटों का निर्गमन।

* सरकार के बैंकर के रूप में कार्य करना।

* बैंकों के बैंक के रूप में कार्य करना।

* साख नियंत्रित करना।

* विदेशी विनिमय पर नियंत्राण करना।

* समाशोधन गृह के तौर पर कार्य करना।

* आर्थिक आंकड़े एकत्रित एवं प्रकाशित करना।

* सरकारी प्रतिभूतियों व व्यापारिक बिलों का क्रय-विक्रय करना।

* ऋण देना।

* मूल्यवान वस्तुओं का क्रय-विक्रय करना।

* सभी अनुसूचित बैंकों के बैंकिंग लेखों का प्रबंधन करना।

* प्रचालन हेतु अनुपयुक्त नोटों एवं सिक्कों को नष्ट करना।

* विदेशी विनिमय प्रबंधन अधिनियम, 1999 का प्रबंध करना।

* बैंकिंग प्रचालनों के लिए व्यापक दिशा-निर्देश देना।

* लोगों को नोटों एवं सिक्कों की अच्छी गुणवत्ता में पर्याप्त आपूर्ति करना।

* कीमत स्थिरता को बनाए रखना और उत्पादक क्षेत्रा की साख के पर्याप्त प्रवाह को निश्चित करना।

बैंकिंग औम्बुड्समैन

बैंकिंग विनियमन अधिनियम, 1949 की धारा 25A के अंतर्गत, भारतीय रिजर्व बैंक ने ऋण एवं अग्रिमों से सम्बद्ध बैंकिंग सेवाओं एवं अन्य विशिष्ट मामलों में अक्षमता के खिलाफ शिकायतों के निपटान हेतु बैंकिंग औम्बुड्समैन गठित किया और विशेष विवादों में मध्यस्थ के तौर पर कार्य करने हेतु भी सशक्त किया। रिजर्व बैंक ने निर्देशित किया कि सभी व्यापारिक बैंक, क्षेत्राीय ग्रामीण बैंक और अनुसूचित प्राथमिक सहकारी बैंक बैंकिंग औम्बुड्समैन योजना, 1995 और बैंकिंग औम्बुड्समैन योजना, 2002 से संगत होंगे।

रिजर्व बैंक के गवर्नर द्वारा गठित चार सदस्यों वाली चयन समिति की अनुशंसा पर रिजर्व बैंक ने एक या अधिक व्यक्तियों को नियुक्त किया जो बैंकिंग औम्बुड्समैन के रूप में जाने जाते हैं। चयन समिति में रिजर्व बैंक के सभी तीनों डिप्टी गवर्नर, एवं विशेष आमंत्रित व्यक्ति के तौर पर अतिरिक्त सचिव (वित्तीय क्षेत्रा), आर्थिक मामले विभाग शामिल होते हैं।

बैंकिंग औम्बुड्समैन प्रसिद्ध व्यक्ति होना चाहिए एवं उसे विधि, बैंकिंग, वित्तीय सेवाओं, लोक प्रशासन या प्रबंधन क्षेत्रों में अनुभव होना चाहिए, और यदि वह व्यक्ति लोक सेवक है तो उसे भारत सरकार में संयुक्त सचिव या इससे ऊपर के पद पर होना चाहिए और ऐसे व्यक्ति के बैंकिंग क्षेत्रा से होने पर, उसे सार्वजनिक क्षेत्रा में पूर्णकालिक निदेशक के तौर पर कार्य का अनुभव होना चाहिए।

बैंकिंग औम्बुड्समैन के कार्य एवं शक्तियां निम्न हैंµ(क) बैंकिंग सेवाओं के प्रावधानों से सम्बद्ध शिकायतों को सुनना या स्वीकार करना;

(ख) ऐसी शिकायतों पर विचार करना और समझौते द्वारा, बैंक तथा शिकायतकर्ता के बीच मध्यस्थता एवं सहमति द्वारा या योजनानुसार निर्णय करके शिकायतकर्ताओं की संतुष्टि या निपटारा करना;

(ग) पर्यवेक्षण की सामान्य शक्तियों का इस्तेमाल करना एवं अपने कार्यालय पर नियंत्राण रखना और वहां पर होने वाले कार्यों के लिए उत्तरदायी होना;

(घ) रिजर्व बैंक के गवर्नर को, प्रत्येक वर्ष 31 मई तक, विगत् वित्तीय वर्ष में उसके कार्यालय (बैंकिंग औम्बुड्समैन) की गतिविधियों की आम समीक्षा पर एक रिपोर्ट प्रस्तुत करना और अन्य ऐसी सूचना प्रदान करना जो रिजर्व बैंक द्वारा मांगी गई हो।

वर्तमान स्थितिः

वर्तमान में संपूर्ण भारत में 15 केंद्रों पर बैंकिंग लोकपाल कार्यालय स्थापित हैं तथा शिकायतों की संख्या, शिकायत का समय पर निपटान तथा लोकपाल द्वारा दिए गए अवॉर्ड की उपयुक्तता के आधार पर लोकपाल के कार्य निष्पादन का विश्लेषण किया जाता है। बैंकिंग लोकपाल को प्रतिवर्ष लगभग 5,000 शिकायतें प्राप्त होती हैं जिसमें से अधिकांश शिकायतें जमा खातों में व्यवहार, ऋण अग्रिमों, धन-अंतरण, बैंक गारंटी आदि से संबंधित होती हैं। यह खुशी की बात है कि बैंकिंग लोकपाल द्वारा लगभग 90 प्रतिशत से अधिक शिकायतें मध्यस्थता एवं परस्पर सहमति के आधार पर निपटाई गईं हैं। त्वरित निर्णय लेने के कारण बैंकिंग लोकपाल का बैंक एवं ग्राहक दोनों ने स्वागत किया है।

इसकी उपादेयता एवं महत्व को देखते हुए भारतीय रिजर्व बैंक ने इसमें संशोधन किए हैं। संशोधित बैंकिंग लोकपाल योजना, 2006 जनवरी, 2010 से लागू की गई है। संशोधित योजना में महत्वपूर्ण बदलाव किए गए हैं तथा इसे और अधिक सरल बनाते हुए शिकायतकर्ता एवं बैंक दोनों को बदलती हुई परिस्थितियों में एक नया दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रेरित किया है। बैंकिंग लोकपाल क्षतिपूर्ति का निर्धारण करते समय शिकायतकर्ता का लगने वाला समय, वित्तीय हानि, परेशानी, मानसिक संताप इत्यादि बातों का ध्यान रखता है। इसी के साथ मध्यस्थता द्वारा समझौते के प्रयास में बैंकिंग लोकपाल नामित बैंक के क्षेत्राीय/नोडल कार्यालय को भी शामिल करता है।

इस प्रकार ‘बैंकिंग लोकपाल’ बैंक एवं ग्राहक दोनों के हित में है। इस योजना से ग्राहक एवं बैंकों के बीच मनमुटाव दूर होते हैं एवं विवादों का समाधान कम समय में तथा सौहार्दपूर्ण वातावरण में हो जाता है। इस योजना के तहत् ग्राहकों को कम समय में यथोचित न्याय मिल जाता है।

ग्राहक संतुष्टि की दृष्टि से यह एक उपयोगी एवं सारगर्भित योजना है। इसी के कारण ग्राहकों की शिकायतों का त्वरित एवं संतुष्टिपूर्ण निपटान संभव हो सका है। आज जबकि बैंकों में ‘ग्राहक सेवा’ पर अधिक ध्यान केंद्रित किया जा रहा है ऐसे में बैंकिंग लोकपाल योजना मील का पत्थर साबित हो रही है।

इसकी उपादेयता को प्रभावी बनाने के लिए सभी बैंकों को निर्देश दिए गए हैं कि वे इस योजना को सभी शाखा/कार्यालयों में प्रमुख स्थानों पर प्रदर्शित करें तथा अंचल/क्षेत्राीय कार्यालयों में नोडल अधिकारियों की नियुक्ति करें जो ‘बैंकिंग लोकपाल योजना’ में बैंकिंग लोकपाल के समक्ष शिकायतों में बैंक का प्रतिनिधित्व करे तथा सही एवं वास्तविक स्थिति से बैंकिंग लोकपाल को सूचित करे।

आज वैश्वीकरण एवं उदारीकरण के दौर में जबकि बैंकों के बीच प्रतिस्पर्द्धा चरम पर है तथा ग्राहकों के लिए अनेक विकल्प खुले हैं ऐसे में बैंकिंग लोकपाल योजना ग्राहक एवं बैंकों के हित में है। इसके सकारात्मक एवं उत्साहवर्द्धक परिणामों से ग्राहक एवं बैंक दोनों लाभान्वित हो रहे हैं।

आयकर निपटान आयोग

आयकर निपटान आयोग (आईटीएससी) की स्थापना केंद्र सरकार द्वारा भारत के उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश के.एन. वानचू की अध्यक्षता में 1971 में गठित प्रत्यक्ष कर जांच समिति की अनुसंशाओं पर वर्ष 1976 में की गई।

वानचू समिति ने निपटान आयोग की अवधारणा को एक बार करवंचना वाले करदाता को उसके देयताओं को निपटाने के तंत्रा के रूप में अपनाने की अनुमति दी। यह भारत में पहला वैकल्पिक विवाद निपटान (एडीआर) निकाय है। इसका कार्य भारतीय आयकर एवं संपत्ति कर नियमों के संदर्भ में आयकर विभाग एवं करदाता के बीच विवादों का निपटान करना है। (आयोग का गठन आयकर अधिनियम 1961 की धारा 245 बी के अंतर्गत किया गया था। इसमें एक अध्यक्ष एवं सदस्य होते हैं जैसाकि केंद्र सरकार सही समझे।)

निपटान आयोग करदाता को पहले ही आयकर विभाग के समक्ष बता चुके अतिरिक्त आय विवरणों को उसके समक्ष रखने की अनुमति देता है। आवेदक को आयोग के समक्ष अतिरिक्त आय के विवरण बताने से पूर्व अतिरिक्त आय पर सभी करों एवं ब्याज का पूर्ण भुगतान करना होगा। तब आयोग आवेदन की स्वीकार्यता पर निर्णय लेगा, यदि आवेदन स्वीकार कर लिया गया हो, तो आयोग दोनों पक्षों को अपनी बात रखने का अवसर देते हुए समयबद्ध तरीके से मामले की प्रक्रिया प्रारंभ करता है।

आयोग को जुर्माने से उन्मुक्ति का व्यापक अधिकार है, जो याचिका का बड़ा सेत है। आयोग द्वारा दिया गया आदेश अंतिम होता है। यह आवश्यक है कि आवेदन करने की तिथि से 18 महीनों के भीतर सेटलमेंट आदेश दिया जाए।

वर्तमान में आयोग की चार बेंच कार्यरत हैं। दिल्ली बेंच को प्रधान बेंच के तौर पर जाना जाता है। अन्य बेंचें मुम्बई, कोलकाता एवं चेन्नई में कार्यशील हैं और इन्हें अतिरिक्त बेंचों के रूप में जाना जाता है।

आयकर औम्बुड्समैन

वित्त मंत्रालय में राजस्व विभाग के सचिव, केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड के अध्यक्ष, केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड का सदस्य (कार्मिक) एवं केंद्र सरकार से मिलकर बनी समिति की सिफारिश पर एक या अधिक व्यक्तियों को औम्बुड्समैन नियुक्त किया जाता है।

औम्बुड्समैन आयकर विभाग के अधिकार क्षेत्रा से स्वतंत्रा होगा। औम्बुडसमैन को 2 वर्षों के लिए नियुक्त किया जाता है जो 1 साल तक विस्तारित किया जा सकता है या पदाधिकारी की आयु 63 वर्ष तक रखी गई है, जो भी पहले हो। उसकी पुनर्नियुक्ति नहीं की जा सकती।

ओम्बुडसमैन के कृत्य एवं दायित्वः

* पर्यवेक्षण की सामान्य शक्तियों को कार्यान्वित करना एवं अपने कार्यालय पर नियंत्राण रखना तथा अपने कार्यालय के कृत्यों के लिए उत्तरदायी होना;

* उसके संज्ञान में आने वाली किसी सूचना एवं दस्तावेज की गोपनीयता को बनाए रखना;

* करदाताओं के अधिकारों का संरक्षण करना और उनके कर बोझ में कमी करना;

* ऐसे मामलों की पहचान करना जो करदाताओं के करों में वृद्धि करते हैं या उनके लिए समस्याएं पैदा करते हैं, और उन मामलों को केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड एवं वित्त मंत्रालय के सम्मुख रखना;

* सीबीडीटी के अध्यक्ष एवं वित्त मंत्रालय में राजस्व विभाग के सचिव को उचित कार्रवाई की अनुशंसा हेतु मासिक रिपोर्ट भेजना;

* पूर्व वित्त वर्ष के दौरान औम्बुड्समैन कार्यालय द्वारा की गई गतिविधियों की सामान्य समीक्षा वाली एक रिपोर्ट प्रत्येक वर्ष सीबीडीटी अध्यक्ष, राजस्व विभाग के सचिव को भेजना और अन्य ऐसी सूचना भी भेजना जिसे वह भेजा जाना आवश्यक समझे।

आयकर अपीलीय ट्रिब्यूनल

आयकर अपीलीय टिब्यूनल (आईटीएटी) का गठन 25 जनवरी, 1941 को किया गया था। यह ‘‘सुलभ न्याय एवं सतत् न्याय’’ आदर्श वाक्य पर समर्पित है, जिसका अभिप्राय है सुगम एवं शीघ्र न्याय। ट्रिब्यूनल के कार्यकरण की कसौटी हैंµमितव्ययता, सुगमता, तकनीकी जटिलता मुक्त; एवं विषय विशेषज्ञता।

यह न्यायालय नहीं है लेकिन एक ऐसा ट्रिब्यूनल है जो राज्य की न्यायिक शक्तियों का कार्यकरण करता है। ट्रिब्यूनल के समक्ष किसी भी प्रकार की प्रक्रिया को भी न्यायिक प्रक्रिया समझा जाएगा। इसे दीवानी न्यायालय भी समझा जाएगा।

श्ट्रिब्यूनल में निम्न प्राधिकारी होते हैं

(i) अध्यक्ष

(ii) वरिष्ठ उपाध्यक्ष/उपाध्यक्ष

(iii) सदस्य-न्यायिक एवं एकाउन्टेंट

(iv) रजिस्ट्रार

(v) डिप्टी रजिस्ट्रार

(vi) सहायक रजिस्ट्रार

ट्रिब्यूनल का अध्यक्ष विभाग का प्रमुख होता है और वह ट्रिब्यूनल की सभी बेंचों पर प्रशासनिक नियंत्राण भी रखता है। प्रत्येक जोन का प्रमुख उपाध्यक्ष होता है। आयकर अपीलीय ट्रिब्यूनल का मुख्यालय मुम्बई में अवस्थित है। मौजूदा समय में यह 27 विभिन्न स्थानों पर 63 बेंचों के साथ कार्यशील है।

आयकर अधिनियम 1961 की धारा 131 के तहत् आयकर प्राधिकारियों में निहित सभी शक्तियां ट्रिब्यूनल में निहित होंगी। जब ट्रिब्यूनल निम्न मामलों पर विचार करती है तो उसे वही शक्तियां प्राप्त होंगी जो सिविल प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत एक न्याालय में निहित होती हैंµ

(क) अन्वेषण एवं जांच;

(ख) किसी व्यक्ति को उसके समक्ष प्रस्तुत होने को कहना;

(ग) लेखे संबंधी दस्तावेज या अन्य दस्तावेज प्रस्तुत करने को बाध्य करना; और

(घ) कृत्यों को जारी करना।

भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी)

शेयर बाजार में चलने वाले बृहत् कारोबार को नियंत्रित एवं विनियमित करने का काम ‘सिक्योरिटीज एवं एक्सचेंज बोर्ड ऑफ इण्डिया’ अर्थात् सेबी द्वारा किया जाता है। यह बोर्ड कंपनियों द्वारा शेयर बाजार में होने वाली गड़बड़ियों को रोकने के लिए बने विभिन्न कानूनों को लागू करवाने के लिए उत्तरदायी बनाया गया है। एशिया के सबसे पुराने भारतीय शेयर बाजार में निवेशकों का विश्वास बनाए रखने और उन्हें संरक्षण प्रदान करने में इसका विशेष योगदान रहा है। यह एक गैर-संवैधानिक संस्था है जिसकी स्थापना केंद्र सरकार द्वारा संसद में एक कानून पारित करके 12 अप्रैल, 1988 को की गई। तत्पश्चात् 30 जनवरी, 1992 को एक अध्यादेश द्वारा इस संस्था को वैधानिक दर्जा भी प्रदान कर दिया गया।

सेबी का सम्पूर्ण प्रबंधन छह सदस्यों की देख-रेख में किया जाता है। इसका अध्यक्ष केंद्र सरकार द्वारा नामित विशिष्ट योग्यता प्राप्त व्यक्ति होता है तथा दो सदस्य केंद्रीय मंत्रालयों के अधिकारियों में से ऐसे व्यक्ति नामित किए जाते हैं, जो वित्त एवं कानून के विशेषज्ञ होते हैं। सेबी के प्रबंधन में एक सदस्य भारतीय रिजर्व बैंक के अधिकारियों में से तथा दो अन्य सदस्यों का नामांकन भी केंद्र सरकार द्वारा किया जाता है। सेबी का मुख्यालय मुम्बई में बनाया गया है। जबकि इसके क्षेत्राीय कार्यालय कोलकाता, दिल्ली तथा चेन्नई में हैं।

सेबी के कर्तव्य एवं दायित्वः स प्रतिभूति बाजार में निवेशकों को संरक्षण सुनिश्चित करना तथा प्रतिभूति बाजार को उचित उपायों के माध्यम से विनियमित एवं विकसित करना।

* स्टॉक एक्सचेंजों तथा किसी भी अन्य प्रतिभूति बाजार के व्यवसाय का नियमन करना।

* स्टॉक ब्रोकर्स, सब ब्रोकर्स, शेयर ट्रांसफर एजेन्ट्स, ट्रस्टीज, मर्चेंट बैंकर्स, अंडरराइटर्स, पोर्टफोलियो मैनेजर आदि के कार्यों का नियमन करना एवं उन्हें पंजीकृत करना।

* म्युच्अल फण्ड की सामूहिक निवेश योजनाओं को पंजीकृत करना तथा उनका नियमन करना।

* नियमित संगठनों को प्रोत्साहित करना।

* प्रतिभूति बाजार से जुड़े लोगों को प्रशिक्षित करना तथा निवेशकों की शिक्षा को प्रोत्साहित करना।

* प्रतिभूतियों के बाजारों से संबंधित अनुचित व्यापार व्यवहारों को समाप्त करना।

* प्रतिभूतियों की इनसाइडर ट्रेडिंग पर रोक लगाना।

* प्रतिभूतियों के बाजार में कार्यरत् विभिन्न संगठनों के कार्यकलापों का निरीक्षण करना एवं सुव्यवस्था सुनिश्चित करना।

सेबी की स्थितिः

सेबी द्वारा अपने निर्धारित दायित्वों का काफी सीमा तक समुचित प्रकार से निर्वहन किया जा रहा है। इसे और भी क्रियाशील और प्रभावी बनाने के लिए सरकार द्वारा निरंतर अतिरिक्त प्रयास भी किए जा रहे हैं। शेयर बाजार में गड़बड़ियों के दोषियों को अधिक कठोर सजा के लिए सेबी को व्यापक अधिकार उपलब्ध कराने के उद्देश्य से सेबी (संशोधन) अधिनियम, 2002 को अक्टूबर, 2002 से लागू किया गया।

इस अधिनियम के अंतर्गत सेबी द्वारा इनसाइडर ट्रेडिंग के लिए 25 करोड़ रुपए तक का जुर्माना किया जा सकता है। लघु निवेशकों के साथ धोखाधड़ी के मामलों में एक लाख रुपए प्रतिदिन की दर से एक करोड़ रुपए का जुर्माना आरोपित करने का प्रावधान भी इस अधिनियम में किया गया है।

संशोधित प्रावधानों के अनुसार अब किसी भी शेयर बाजार को मान्यता प्रदान करने का अधिकार सेबी को हस्तांतरित कर दिया गया है। शेयर बाजार के किसी सदस्य के किसी बैठक में मताधिकार के संबंध में नियम बनाने तथा उसे संशोधित करने का अधिकार भी सेबी को प्रदत्त कर दिया गया है। इसके अतिरिक्त स्पॉट डिलीवरी आधार पर किए गए सौंदों के विनियमन व नियंत्राण तथा किसी शेयर बाजार द्वारा किसी कम्पनी के शेयरों को लिस्टिंग न करने संबंधी कंपनियों की शिकायतों की सुनवाई भी अब सेबी द्वारा ही की जाती है।

सेबी द्वारा किए गए सुधारः

सेबी ने सभी क्षेत्रों के विकास हेतु समय-समय पर प्राथमिक एवं द्वितीय दोनों बाजारों के निर्बाध और त्वरित विकास के लिए कई कदम उठाए हैं। कम्प्यूटरीकरण के अनुप्रयोग ने निगरानी तंत्रा को मजबूत किया है। मूलभूत निगरानी तंत्रा स्टॉक एक्सचेंजों का है, जबकि सेबी प्रक्रिया की निगरानी करता है। प्राइस कैप, प्राइस बैंड्स, सर्किट फिल्टर्स, मार्जिन्स और स्टॉक वॉच कुछ ऐसे तरीके हैं जिनके माध्यम से बाजार पर सख्त निगरानी रखी जा सकती है।

क्लीयरेंस और सेटलमेंट व्यवस्था में सुधार किए गए। इस दिशा में बड़ा कदम उठाते हुए डिपॉजटरीज एनएसडीएल और सीडीएसएल और एक क्लीयरिंग निगम एनएससीसीएल की स्थापना की गई।

प्राथमिक बाजार को सशक्त करने के लिए, सेबी ने इश्यू की प्रक्रिया को सरल किया, इश्यू की प्रक्रिया के साथ लोचशीलता को एकबद्ध किया और प्रतिभूत बाजार तक पहुंच हेतु मापदण्डों को मजबूत किया। हाल ही में सेबी ने आईपीओ की अवधि 21 दिन से घटाकर 12 दिन करके एक भारी बदलाव वाला निर्णय लिया। सेबी ने बुक-बिल्डिंग के द्वारा इश्यू तैयार करने का विकल्प प्रस्तुत किया और हाल ही में इसने आईपीओ में बैंकर्स के माध्यम से निवेशकों द्वारा निवेश करने हेतु एएसबीए योजना शुरू की।

म्युच्अल फंड के विकास ने अर्थव्यवस्था को एक नया आवेश प्रदान किया। म्युच्अल फंड विनियमन में संशोधन से फंड प्रबंधकों को बड़ी संचालन लोचशीलता प्राप्त हुई जिसने उनकी जवाबदेही एवं पर्यवेक्षण में वृद्धि की। इसने केवाईसी मापदण्डों को प्रस्तावित किया। सेबी यूलिप की बेहद सामान्य एवं सस्ती दरों पर उपलब्धता की कोशिश करता है।

सेबी ने 2003 में पूंजी बाजार के लिए एक नवीन संस्था ‘औम्बुड्समैन’ की स्थापना की। इसने निवेशकों के संगठन बनाने को प्रोत्साहित किया।

सेबी की सीमाएं

दीवानी न्यायालय के समान संविधिक शक्तियों के बावजूद, सेबी प्रवर्तन की दिशा में अधिक नहीं कर पाया है। सेबी को निवेशकों के बीच अधिक विश्वास कायम करने की आवश्यकता है और विनियमों के प्रवर्तन के संबंध में कहीं अधिक निरंतरता का प्रदर्शन करना होगा। सेबी, एक नियामक के तौर पर, विगत् दशक में घटित घोटालों की शृंखला में निष्प्रभावी सिद्ध हुआ है। उदाहरणार्थ, सेबी को सीआरबी के पूंजी बाजार की समीक्षा करने का अवसर प्राप्त हुआ, लेकिन उसने इस पर गौर नहीं किया जिसके परिणामस्वरूप, निवेशकों को करोड़ों रुपयों की चपत लग गई।

बड़े भुगतान संकट की स्थिति से बचने के लिए संभावित डिफॉल्टर्स की सहायता के लिए सेबी अभी बेहद दूर खड़ा है। जब कभी वास्तविक जालसाज नई चालें चल लेते हैं, निगरानी तंत्रा को उसे पकड़ने में लंबा समय लग जाता है। सेबी ने भारत में 1993 में बदला व्यवस्था को प्रतिबंधित कर दिया था, लेकिन इसने इसके लिए कोई वैकल्पिक तंत्रा प्रदान नहीं किया। ऐसा जान पड़ता है कि यह निवेशक-हितैषी होने की अपेक्षा कॉर्पोरेट-हितैषी है। यह न केवल धोखेबाज कंपनियों को दण्ड देने में विफल हुआ है अपितु मूक दर्शक भी बना रहा है, जब वही कंपनियां नए इश्यूज के साथ बाजार में पुनः प्रवेश करती हैं। इसके पास पूंजी बाजार को विनियमित एवं विकसित करने हेतु जरूरी संख्या में सक्षम कर्मी नहीं हैं।

वायदा बाजार की निगरानी और उससे संबंधित कार्रवाई करने के लिए गठित वायदा बाजार आयोग (एफएमसी) का सितम्बर 2015 में सेबी में विलय कर दिया गया। अतः अब इसका पृथक् अस्तित्व समाप्त हो गया है।

बौद्धिक संपदा अपीलीय बोर्ड

बौद्धिक संपदा अपीलीय बोर्ड (आईपीएबी) का गठन केंद्र सरकार द्वारा 15 सितम्बर, 2003 को वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय में ट्रेड मार्केट अधिनियम, 1999 एवं वस्तु भौगोलिक संकेत (पंजीकरण एवं संरक्षण) अधिनियम, 1999 के तहत् रजिस्ट्रार के निर्णय के विरुद्ध अपील सुनने के लिए किया गया। आईपीएबी का मुख्यालय चेन्नई में है और चेन्नई, मुम्बई, दिल्ली, कोलकाता एवं अहमदाबाद में इसकी न्यायपीठ हैं। अप्रैल 2007 में बौद्धिक संपदा अपीलीय बोर्ड से संबंधित पेटेंट संशोधन अधिनियम, 2002 और पेटेंट संशोधन अधिनियम, 2005 प्रवृत्त

हुआ। इस प्रकार विभिन्न उच्च न्यायालयों में लम्बित पड़ी अपील आईपीएबी को हस्तांतरित कर दी गईं। इसी प्रकार, पेटेंट अधिनियम, 1970 के तहत् स्पष्टीकरण आवेदनों को आईपीएबी के समक्ष रखने की आवश्यकता है।

अपीलीय बोर्ड का संगठनः (क) अध्यक्ष, उच्च न्यायालय का न्यायाधीश होना चाहिए या वह बोर्ड का कम-से-कम दो साल तक उपाध्यक्ष रहा हो।

(ख) उपाध्यक्ष, जो एक न्यायिक सदस्य के पद पर होना चाहिए या एक तकनीकी सदस्य होना चाहिए या भारतीय विधि सेवा का सदस्य होना चाहिए और इस सेवा में ग्रेड-1 के पद पर होना चाहिए या किसी उच्च पद पर कम से कम पांच वर्षों तक होना चाहिए।

(ग) न्यायिक सदस्य जो भारतीय विधि सेवा में ग्रेड-1 पद पर कम-से-कम तीन वर्षों तक रहा हो या, कम से कम दस वर्षों तक, दीवानी न्यायिक कार्यालय में रहा हो।

(घ) तकनीकी सदस्य, जिसने ट्रिब्यूनल में कम से कम दस वर्षों तक काम किया हो और कम से कम पांच वर्षों तक संयुक्त रजिस्ट्रार से ऊपर के पद पर रहा हो; या कम से कम दस वर्षों तक ट्रेडमार्क विधि में जाना-माना वकील रहा हो।

अध्यक्ष, उपाध्यक्ष एवं प्रत्येक अन्य सदस्य की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा की जाती है और अध्यक्ष की नियुक्ति भारत के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श के बिना न की गई हो।

आईपीएबी को निम्न मामलों पर नियंत्राक या केंद्र सरकार के निर्णयों के विरुद्ध अपीलीय क्षेत्राधिकार हैंः

* आविष्कारक के नाम से सम्बद्ध निर्णय,

* पेटेंट के सह-स्वामियों को दिया गया कोई निर्देश,

* जोड़ने संबंधी पेटेंट पर कोई निर्णय,

* डिवीजनल आवेदन के सम्बद्ध कोई आदेश,

* आवेदन की तिथि से सम्बद्ध कोई आदेश,

* अधिनियम के किसी प्रावधान से असंगत होने पर आवेदन अस्वीकार करना,

* लिपिकीय गलती को सुधारने के संबंध में,

* पेटेंट के अनिवार्य लाइसेंस से सम्बद्ध कोई निर्णय,

* आवेदनों के प्रतिस्थापन से सम्बद्ध कोई निर्णय,

* पेटेंट के संशोधन से सम्बद्ध कोई निर्णय,

* आवेदन एवं विशेषीकरण के संशोधन से सम्बद्ध निर्णय,

* व्यपगत पेटेंट को बनाए रखने से सम्बद्ध कोई निर्णय,

* पेटेंट छोड़ने से सम्बद्ध कोई निर्णय,

* लोक हित की अभिवृद्धि के लिए पेटेंट में संशोधन से सम्बद्ध निर्णय,

* किसी पेटेंट के पंजीकरण के संबंध में निर्णय।

भारतीय प्रतिस्पर्द्धा आयोग (सीसीआई)

भारतीय प्रतिस्पर्द्धा आयोग पर पूरे भारत में प्रतिस्पर्द्धा अधिनियम, 2002 को लागू कराने की जिम्मेदारी है और साथ ही ऐसी गतिविधियों को रोकना है जो भारत में प्रतियोगिता या प्रतिस्पर्द्धा पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं। सीसीआई का गठन 14 अक्टूबर, 2003 को किया गया। मई 2009 में 1 अध्यक्ष और 6 सदस्यों के साथ इसने पूरी तरह से कार्य करना प्रारंभ कर दिया।

प्रतिस्पर्द्धा अधिनियम प्रतिस्पर्द्धा की सुनिश्चित और बाजारी शक्तियों के दुरुपयोग और प्रभाव को रोकने के लिए एक औपचारिक तथा विधायी ढांचा प्रदान करता है। प्रतिस्पर्द्धा अधिनियम, 2002 में प्रावधान है कि इसका एक अध्यक्ष होगा और कम से कम दो और अधिकतम छह सदस्य होंगे। इसके अतिरिक्त यह प्रावधान भी है कि एक प्रतिस्पर्धी अपील ट्रिब्यूनल स्थापित होगा जो आयोग के आदेशों के खिलाफ अपील पर सुनवाई तथा निपटारा करेगा। प्रतिस्पर्द्धा अधिनियम के प्रमुख उद्देश्य हैंः प्रतिस्पर्द्धा पर विपरीत प्रभाव वाले क्रियाकलापों को खत्म करना, प्रतिस्पर्द्धा को बढ़ावा देना, उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा करना तथा भारतीय बाजारों में व्यापार की स्वतंत्राता सुनिश्चित करना।

प्रतिस्पर्द्धा अधिनियम की धारा 49(3) के अंतर्गत आयोग पर यह जिम्मेदारी होगी कि प्रतिस्पर्द्धा समर्थन को बढ़ावा देने तथा प्रतिस्पर्द्धा मामलों के बारे में प्रशिक्षण देने के लिए उचित कदम उठाए। इसके लिए आयोग ने छात्रों और औद्योगिक संगठनों, सार्वजनिक क्षेत्रा उपक्रमों, उपभोक्ता संगठनों, व्यावसायिक संस्थानों आदि के साथ मिलकर विभिन्न कार्यशालाएं सम्मेलन आदि आयोजित की हैं।

सीसीआई के कृत्य एवं दायित्वः

* बाजार को उपभोक्ताओं के कल्याण एवं लाभ का हितैषी बनाना।

* देश में अर्थव्यवस्था के विकास एवं तीव्र तथा समावेशी वृद्धि के लिए आर्थिक गतिविधियों में स्वस्थ एवं स्वच्छ प्रतिस्पर्द्धा को सुनिश्चित करना।

* आर्थिक संसाधनों के बेहद दक्ष उपयोग के उद्देश्य के साथ प्रतिस्पर्द्धा नीतियों का क्रियान्वयन करना।

* प्रतिस्पर्द्धा को प्रभावी रूप से फैलाना और भारतीय अर्थव्यवस्था में प्रतिस्पर्द्धा संस्कृति को विकसित एवं स्थापित करने के लिए सभी अंशधारियों के बीच प्रतिस्पर्द्धा के लाभों की सूचना का प्रसार करना।

भारतीय प्रतिस्पर्द्धा आयोग का मूल्यांकनः

सीसीआई सभी क्षेत्रों की कंपनियों पर नियंत्राण रखती है। सीसीआई का उद्देश्य कार्टेल एवं एकाधिकार के दुरुपयोग जैसे प्रतिस्पर्द्धा विरोधी प्रचलनों का उन्मूलन करना है, और साथ ही साथ उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा एवं आर्थिक दक्षता प्राप्ति के लिए प्रतिस्पर्द्धा विरोधी समागमों एवं अधिग्रहणों को रोकना भी है। इसके अलावा, सीसीआई के एजेंडे में प्रतियोगिता की वकालत करना एक अन्य विशेषण है। सीसीआई सक्रिय रूप से रियल एस्टेट, मनोरंजन, सीमेंट, पेट्रोलियम, स्टील, पर्यटन उद्योग, स्वास्थ्य एवं शिक्षा जैसे क्षेत्रों की जांच कर रही है। वर्तमान में, यह प्रतिस्पर्द्धा अधिनियम, 2002 के तहत् प्रतियोगिता मापदण्डों के उल्लंघन के 39 मामलों की जांच कर रहा है। हालांकि, यह अपने नीति उन्मुख कार्यों में अक्षम रहा है। यद्यपि सेमिनार एवं वर्कशॉप भी सीसीआई को समझने में मदद करते हैं। ये मुख्य रूप से जागरूकता सृजित करते हैं, लेकिन प्रतियोगिता संस्कृति के प्रोत्साहन में चुनौतीपूर्ण नीतियां एवं प्रचलन भी शामिल हैं जो प्रतियोगिता संस्कृति को नुकसान पहुंचाते हैं।

सीसीआई बड़ी कंपनियों के बीच भारी-भरकम अर्थदण्ड लगाने के भय द्वारा प्रतिस्पर्द्धा विरोधी कृत्यों को रोकने का भरसक प्रयास करता है। यह अर्थदण्ड उन कंपनियों पर लगाया जाता है जो एकाधिकार उत्पन्न करने और बाजार कीमतों पर प्रभुत्व हासिल करने के लिए प्रतियोगिता उपबंधों का उल्लंघन करते हैं। यह नियामक एजेंसियों के व्यवहार को भी नियंत्रित करता है। उदाहरण के लिए, उपभोक्ताओं ने रिजर्व बैंक से पूर्व भुगतान जुर्माने की शिकायत की। हालांकि मामले पर अधिक गौर नहीं किया गया। जब उपभोक्ता, इस मामले को भारतीय प्रतिस्पर्द्धा आयोग के समक्ष ले गए, जिससे आरबीआई भयभीत हो गया, और पूर्व-भुगतान जुर्मानों को समाप्त करने की घोषणा कर दी। इसी प्रकार का समान प्रभाव अन्य नियामक एजेंसियों पर भी देखा जा रहा है।

वर्ष 2011 में, सीसीआई ने नेशनल स्टॉक एक्सचेंज द्वारा करेंसी डेरिवेटिव्स बाजार में अपनी प्रभुत्वशाली स्थिति का दुरुपयोग करने के लिए उस पर 55.5 करोड़ रुपए का जुर्माना लगाया। इसी प्रकार, इसने डीएलएफ पर हैसियत का दुरुपयोग करके क्रेताओं के साथ एकतरफा समझौता करने के लिए 630 करोड़ रुपए का जुर्माना लगाया। यह मामला प्रतिस्पर्द्धा अपीलीय न्यायाधिकरण के सम्मुख लंबित पड़ा है।

वर्ष 2012 में, सीसीआई ने 11 सीमेंट कंपनियों पर कार्टेल के लिए 6300 करोड़ का जुर्माना लगाया। सीसीआई ने एक गैर-सरकारी संगठनµ‘सीयूटीएस इंटरनेशनल’ की रिपोर्ट के आधार पर गूगल के खिलाफ जांच कराई।

इन अन्वेषणों ने भविष्य के लिए एक आशा बंधाई है और सभी क्षेत्रों की कंपनियों के लिए कुछ हद तक अवरोध का कार्य किया है। इसके बावजूद, सीसीआई के आदेशों की अक्सर आलोचना की जाती है कि इनमें आर्थिक तार्किकता का अभाव होता है जो एनएसई और डीएलएफ के मामलों में देखने को मिली है।

इससे अधिक, सीसीआई द्वारा आरोपित जुर्मानों को उचित निर्देशों के अभाव में अत्यधिक पाया गया है।

प्रतिस्पर्द्धा अधिनियम में भी कुछ कमियां हैं जिन्हें सुधारने की जरूरत है जो सीसीआई के प्रभावी कार्यकरण से तालमेल नहीं बैठा पाते। अधिनियम की धारा 26 सीसीआई के लिए कोई उपबंध नहीं करती कि वह किसी मामले को बंद कर दे, यदि महानिदेशक की रिपोर्ट अधिनियम के उल्लंघन को मान्यता देती है। अन्वेषण इकाई को क्षमता निर्माण की आवश्यकता है।

सीसीआई के अधिकारियों को प्रशिक्षित किए जाने की जरूरत है जिससे आदेशों में तार्किक दृष्टि प्रतिबिम्बित हो सके। इससे बढ़कर, सीसीआई के स्टाफ को बेहतर आर्थिक आकलन के लिए भी बेहतर कौशल की जरूरत है।

प्रतिस्पर्धी अपीलीय ट्रिब्यूनल (कैट)

प्रतिस्पर्धी अपीलीय ट्रिब्यूनल में एक अध्यक्ष तथा दो सदस्य हैं। इन्हें निम्न शक्तियां प्राप्त हैंः

(ii) प्रतिस्पर्द्धा अधिनियम, 2002 के अंतर्गत स्थापित सीसीआई द्वारा जारी कोई निर्देश या निर्णय अथवा पारित आदेश के खिलाफ दाखिल अपील को सुनना और निस्तारित करना,

(ii) आयोग की जांच से सामने आने वाले क्षतिपूर्ति के दावे या आयोग की जांच के खिलाफ अपील में ट्रिब्यूनल के आदेशों तथा उस अधिनियम के अंतर्गत क्षतिपूर्ति की रिकवरी के लिए पारित दावों पर फैसला सुनाना।

उल्लेखनीय है कि पूर्व के एमआरटीपी आयोग के भंग हो जाने पर भारत सरकार के अक्टूबर 2010 के आदेश में एमआरटीपी आयोग के समक्ष लंबित सभी मामलों की सुनवाई कैट को दे दी गई।

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